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Saturday 21 January 2012

मीडिया और मध्यमवर्ग…



नयी दिल्ली, 21 अप्रैल। मीडिया में भ्रष्टाचार सुनने में कुछ अजीब लग सकता है । खासकर उनलोंगो को जो कि पत्रकारिता को अलग चश्में से देखते हैं। ये ऐसे लोग हैं जो  देश दुनिया की तमाम खबरों के लिए हर सुबह अखबार पलटते हैं औऱ शाम को मौका मिलने पर प्राइम टाइम की खबरे देख लेते हैं। बाकी उन खबरों के पीछे कौन है उनका लिखने वाला कौन है इस बात से उन्हे कोई मतलब नहीं क्योंकि ये हमारे देश के बहुसंख्यक मध्यमवर्गीय समाज से आते हैं। जिनकों खबर से बस खुद के प्रभावित होने तक ही सरोकार होता है/ इससे ज्यादा अथवा कम से उन्हे कोई मतलब नहीं होता । देश का ऐसा वर्ग जो कि सुबह से शाम तक आजीविका की चिन्ता में काट देता और बाकी समय अपने पाल के भविष्यनिधि के लिए। बाकी दुनिया में कहां परमाणु बम फट रहा है और कहां युद्ध होने की संभावना है इसका मतलब उसके लिए एक चाय की प्याली खत्म होने भर का होता है । अपने शैशव काल से ही मीडिया ने इस वर्ग को प्रभावित करने की तमाम चेष्ठाएं की, उनके मनमस्तिष्क में घर करने के लिए लाखों जतन किये । अखबारों नें सप्लिमेन्ट निकालें। चैनलों नें स्पेशल न्यूज के नाम पर बुलेटिन। लेकिन यह वर्ग अप्रभावित ही रहा। मगर इधर कुछ सालों से हालात काफी बदले हैं। टीवी के आने के बाद से खबरों को रोचक बनाने की परम्परा जो शुरु हुई अब खतरनाक हद को पार कर रही है। अब ड्राइंगरुम में होने वाली चर्चाओं में 2012 में होने वाली संभावित प्रलय की भी चर्चा शामिल हो गयी है । अब नास्त्रेदमस की आत्मा को कौन बताने जाये कि भइया तुम्हारे देश के लोगों ने तुम्हे भले ही प्रसिद्धि नहीं दी मगर भारतीय मीडिया तुम्हे ज्योतिष का सिरमौर बताने पर तुली है। औऱ अक्सर चैनलों के एमसीआर सेक्शन में वो टेप प्रकट हो जाती है जिसमें कि धरती के तबाह होने के पैकेज बने हुए है।
आपको शायद यह लग सकता है कि मैं विषयेतर हो रहा हूं। लेकिन उपर की सारी बातों की चर्चा इसलिए की गयी ताकि परिवर्तनों की बात और उससे पड़ने वाले प्रभावों की बात आसानी से समझ में आ सके । वस्तुतः यह सारा खेल अधिक से अधिक टीआरपी और विज्ञापन से जुड़ा हुआ है । करोड़ो के इस वारे न्यारे के बीच आम दर्शको को समझ में नहीं आता कि कौन खबर पुरानी है और कौन नई। या फिर किस खबर को किस प्रसंग से बनाया गया है। आम लोगों को कनफ्यूज कर के पैसा बनाना अब आ गया है।लिहाजा चैनलों की भीड़ बढ़ी है , मगर दर्शक तो वहीं हैं।हां यह जरुर है कि ब्रेक के टाइम बटन दबाने की परम्परा महानगरों तक ही सीमित नहीं बल्कि डीटीएच की मेहरबानी से गांवो तक पहुंच चुकी है। उपभोक्ताओं के पास विकल्पों की भरमार जरुर है मगर कन्टेन्ट की नहीं क्योंकि आखिरकार नींव तो एक ही है।
देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी अपनी किशोरावस्था को प्राप्त कर रहा है । समाज में एक आम धारणा है कि किशोरावस्था बड़ी खतरनाक उम्र है , इस लिहाज से यह बात देश के टीवी चैनलों पर एकदम सटीक बैठ रही है। लगातार बढ़ रही चैनलों की संख्या और फिर बन्द होते चैनल ..एक तरफ रोजगार का बाजार तो वहीं चुपके से बेरोजगार होते सैकड़ों पत्रकार । पंजाब हरियाना में पिछले पांच सालों का रिकार्ड (अनआफिशियली) एक बेबसाइट पर देखा तो माथा चकरा गया । पांच साल में बीस न्यूज चैनल खुले, जिनमें 16 के शटर डाउन... चार में से तीन बिके और एक ने राज्य छोड़ दिया। मतलब साफ है चुनाव के विज्ञापनों की मोटी कमाई के लालच में दुकान खोली चुनाव के छ महीने पहले से छ महीने बाद तक चलाया फिर किस्सा खतम। मालिक का काला, सफेद हुआ औऱ कुछ अतिरिक्त भी बैंक अकाउन्ट में और फिर छंटनी की प्रक्रिया के नाम पर धीरे धीरे दुकान बढ़ाने की तैयारी।
आजकल बिहार में मीडिया का बड़ा बूम आया हुआ है। साल भर पहले से मैने गिनना चालू कर दिया था। लेकिन बाद में गिनने में तकलीफ होने लगी लिहाजा यह कसरत बन्द कर दी । हाल फिलहाल बिहार झारखण्ड आधारित चैनलों की संख्या दर्जन को पार कर गयी है और दो चार, आने की तैयारी में हैं। एक बड़े फिल्मकार नें जो परम्परा शुरु की उसके बाद से बिहार और झारखण्ड तो पत्रकारों के लिए स्वर्ग हो गया । सबके अपने अपने दावे, और सबकी अपनी अपनी टीआरपी रेटिंग। इन्टरनेट पर प्रायोजित खबरे पढ़ते पढते दिमाग भन्ना गया है। क्योंकि एक ही दिन, एक ही समय में तीन चैनलों को टीआरपी में नम्बर वन की रेटिंग कैसे मिल सकती है।
ये सारे सवाल मीडिया के भीतर हो रहे घटनाक्रमो के लिहाज से बताने के लिए काफी है पत्रकारिता में हाल फिलहाल कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा है। चाहे वो कन्टेन्ट के स्तर पर वैचारिक बलात्कार की परम्परा हो या फिर काले को सफेद बनाने के लिए मीडिया मंडियो मे लगती बोली के साथ ही टीवी के पटरी व्यवसाय की शुरुआत। यह दोनों स्थितियां किसी भी हाल में कत्तई शुभ नहीं है। लंदन के कुख्यात पपराजी भी डायना प्रकरण के बाद सुधर गये...मगर भारतीय पपराजियों को आखिर किस डायना की मौत का इन्तजार है।
दरअसल कहानी यहां कुछ और है। ये कहानी विशुद्ध रुप से भारतीय मानसिकता के अनुरुप है ..यानि कि शार्टकट प्रणाली। जरा गौर करें क्या आज के बीस साल पहले पत्रकार बनने के लिए किसी खास डिग्री की जरुरत होती थी ? लेकिन चैनलों की भीड़ नें इस पेशे को भी बाजारु बना ही दिया। और बाजार में नैतिकता नहीं सिर्फ नफा औऱ नुकसान की बाते होती है। गली गली में खुले मीडिया संस्थान औऱ हर महानगर में सिटी से लेकर नेशनल टीवी के व्यवसाय ने रोजगार के लिहाज से इस क्षेत्र को भले ही बेहतर बनाय़ा हो मगर पत्रकारिता के लिहाज से नहीं। कुछ चैनलों को छोड़ दिया जाये तो टीवी पर राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करने वाले चेहरे भी इतने परिपक्व नहीं होते जिनकों दर्शक गंभीरता से सुन सके। इस मामले में क्षेत्रीय लबादा ओढ़े तथाकथित नेशनल चैनलों का हाल सबसे बुरा है ।इसके अलावा अब सुन्दर चेहरे पत्रकारिता की अनिवार्य शर्त हो चुके है। टीवी को अब इंटेलेक्चुअल नहीं बल्कि मॉडल चाहिए।अखबार को पत्रकार नहीं विज्ञापन एजेन्ट चाहिए।अब सेवा नहीं होती , क्योंकि बाजार ही रहनुमा है , बाजार ही आखिरी शर्त है । देश का मीडिया एक ऐसे संक्रमण काल से गुजर रहा है जिसके बारे में भाषणबाजी तो बहुत होती है मगर कदम बढाने की शुरुआत कोई नहीं करता। क्योकि हर हाथ मजबूर है। रोटी की चिन्ता सबको है । महीने में मोटी पगार पाने वाले को भी औऱ दफ्तर दफ्तर घूम के अपना आर्टिकल छपवाने वाले को भी। जीवन स्तर अलग अलग भले हो मगर सबकी अपनी चिन्ताएं है। अब जेहनी तौर पर समाज का दर्जा दूसरा है। इसीलिए शोषण सहते है । और शोषण कराने के लिए आगे खड़े रहते है । क्या करे दूसरा रास्ता भी तो नहीं है।मगर इस बीच से भी कभी कभी कुछ आवाजे उठती जरुर है। इन सारी विसंगतियों के बीच एक बात और भी जानना ज्यादा जरुरी है कि देश के मध्यमवर्ग ने भी सोचना शुरु कर दिया है । अब वह प्रलय की खबरों से चिन्तित नहीं होता बल्कि हंसता है। औऱ आपस में मजाक करता है। गंभीर खबरे भी मजाक बन कर रह जाती है । ऐसे में यह खतरे की घण्टी से उन चैनल मालिकों और संचालको के लिए जिन्होने जनता की नब्ज पकड़ने के नाम पर यह डर का व्यापार शुरु किया मगर खामियाजा पूरी बिरादरी को भुगतना पड़ रहा है। अब छोटे चैनलो के सामने दिक्कत ये है कि नया क्या करें। बड़े के सामने दिक्कत है कि पुरानी छवि से कैसे उबरे । इस उठापटक में दर्शकों की उदासीनता पत्रकारिता के बाजार का भी बेड़ा गर्क कर रही है । लेकिन हां इन सबके बीच में एक वर्ग जो मजे में है वह है काले को सफेद बनाने वाला वर्ग, क्योंकि उसकी तो चांदी है। और वह एक पवित्र पेशे की आड़ में अपने घर में दीवाली मना रहा है

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